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बिहार में SIR का खेल उजागर, यूपी में नहीं दोहराने देंगे—अखिलेश यादव”

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बिहार में SIR का खेल उजागर, यूपी में नहीं दोहराने देंगे—अखिलेश यादव”

यह बयान सिर्फ परिणाम-परक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मतदाता सूची निष्पादन, चुनाव-प्रबंधन और केन्द्र-राज्य तथा राज्यों के बीच श्रेय-दायित्व के सवालों को उजागर करता है। इसके अनेक आयाम हैं – राजनीतिक, संवैधानिक, तकनीकी, सामाजिक। आगे उन पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


  • SIR प्रक्रिया क्या है?

“SIR” का अर्थ अक्सर मतदान एवं मतदाता सूची-सुधार की प्रक्रिया में “Special Intensive Revision” या “Special Institutional Revision” के रूप में लिया जाता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से उन मतदाता-सूचियों तथा उनके अद्यतन (update) का काम करती है जिनमें नाम हटाना, नाम जोड़ना, गलतियों का सुधार आदि शामिल हैं।
उदाहरण के लिए, अखिलेश यादव ने कहा:

“बिहार में जो खेल SIR ने किया है वो पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू, यूपी और बाकी जगह पर अब नहीं हो पाएगा क्योंकि इस चुनावी साज़िश का अब भंडाफोड़ हो चुका है।”

इससे यह स्पष्ट है कि सपा प्रमुख को लगता है कि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग हुआ है — यानी राजनीतिक दलों, राज्य-प्रशासन या अधिकारियों द्वारा मतदाता सूची में मनचाही छेड़-छाड़ या संशोधन किया गया होगा।

ऐसी प्रक्रिया का दुरुपयोग लोकतांत्रिक आधार पर खतरनाक मानी जा सकती है क्योंकि यदि किसी दल के लिए मतदाता सूची में हेर-फेर हुआ हो तो चुनावी निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।


बिहार परिणाम और प्रतिक्रिया

हाल ही में (नवंबर 2025) में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) ने शानदार बढ़त बनाते हुए महागठबंधन को बड़े अंतर से पीछे छोड़ा है।

अखिलेश यादव ने इस परिणाम को स्वीकार तो नहीं किया, बल्कि इस हार का ठीकरा SIR प्रक्रिया पर फोड़ा। उनका कहना था कि यदि प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं रही हो, तो परिणाम को स्वीकार करना कठिन हो जाता है। उन्होंने यह चेतावनी दी कि इस तरह की “खेल” अब अन्य राज्यों — जैसे उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु — में नहीं होने देंगे।

यह प्रतिक्रिया राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी है — सपा यह संकेत देना चाहती है कि वह उत्तर प्रदेश में आगामी चुनावों में सक्रिय होगी और मतदाता-प्रक्रिया पर विशेष निगरानी रखेगी।
उन्होंने कहा:

“CCTV की तरह हमारा ‘PPTV’ मतलब ‘पीडीए प्रहरी’ चौकन्ना रहकर भाजपाई मंसूबों को नाकाम करेगा। भाजपा दल नहीं छल है।”


यू-पी-के लिए संदेश

यह बयान अकेले बिहार तक सिमित नहीं है — इसका मुख्य लक्ष्य उत्तर प्रदेश है। यू-पी में जब भी विधानसभा या उपचुनाव होंगे, वहाँ इस प्रकार की प्रक्रिया और उनकी निष्पक्षता पर सपा का ध्यान रहेगा।

मुख्य बिंदु ये हैं:

सपा संकेत दे रही है कि मतदाता-सूचियों की “विशेष समीक्षा” (SIR) प्रक्रिया पर निगरानी रखेगी।

उन्हें लगता है कि यदि प्रक्रिया विश्वसनीय नहीं होगी, तो निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं होंगे।

यह राजनीतिक चेतावनी है कि “हम पीछे नहीं हटेंगे” — सपा सक्रिय भूमिका ले रही है।

इसका असर ये भी हो सकता है कि प्रशासन, निर्वाचन आयोग या राज्य चुनाव आयोगों को अधिक सतर्क रहना पड़े। क्योंकि विपक्ष द्वारा प्रक्रिया पर नियंत्रण का दावा, चुनाव-प्रक्रिया की विश्वसनीयता को चुनौतियों के घेरे में ला देता है।


लोकतांत्रिक एवं प्रशासनिक चुनौतियाँ

इस पूरे बयान-परिस्थिति में निम्न चुनौतियाँ सामने आती हैं:

  1. मतदाता-सूची की विश्वसनीयता: यदि सूची में नाम हटाए गए हों, नाम जोड़े गए हों, या छेड़-छाड़ हुई हो, तो मतदान के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।

  2. प्रक्रिया में पारदर्शिता: SIR जैसी प्रक्रिया में किसने क्या भूमिका निभाई, कौन प्रतिनिधि था, क्या निरीक्षण हुआ — ये सवाल उठते हैं।

  3. निर्दलिय प्रशासन vs राजनीतिक दल: यदि राजनीतिक दल प्रक्रिया को “खेल” कह रहे हैं, तो प्रशासन-निर्दलिय होना चाहिए। लेकिन आरोप-प्रत्यारोप से एक रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता की झलक मिलती है।

  4. अगले चुनावों में प्रभाव: उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में इस तरह की चेतावनी का असर बड़े स्तर पर होगा — मतदाता-विश्वास, चुनाव-प्रक्रिया की तस्वीर और जनमत का दायरा प्रभावित होगा।

  5. लोकतांत्रिक वैधानिकता: चुनाव आयोग, जनप्रतिनिधि, राज्य-प्रशासन को सुनिश्चित करना होगा कि प्रक्रिया वैधानिक, निष्पक्ष और समयबद्ध हो।


सपा की रणनीति और संदेश

सपा द्वारा रखे गए मुख्य संदेश नीचे हैं:

  • “अब हम ये खेल नहीं होने देंगे” — यानी प्रक्रिया में बदलाव लाना चाहते हैं।

  • “PPTV (पीडीए प्रहरी)” — प्रतीकात्मक रूप से यह दिखाता है कि सपा निगरानी की भूमिका निभाएगी।

  • “भाजपाई मंसूबों को नाकाम करेगा” — स्पष्ट राजनीति-प्रचार का हिस्सा।

  • न्याय-सुधार-लोकतंत्र-विश्वास जैसे शब्दों के माध्यम से मतदाता-आधार मजबूत करना।

इस रणनीति का उद्देश्य मतदाता-विश्वास को बहाल करना होगा, क्योंकि यदि लोग मानते हैं कि प्रक्रिया फेयर नहीं है, तो मतदान में गिरावट या निष्क्रियता आ सकती है।


क्या इस तरह की प्रक्रिया निष्पक्ष हो सकती है?

यहाँ कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं जिससे SIR-प्रक्रिया अधिक निष्पक्ष, पारदर्शी व भरोसेमंद बन सकती है:

  • स्वतंत्र निरीक्षण दल बनाना जिसमें राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, नागरिक समाज एवं निर्वाचन आयोग शामिल हों।

  • प्रक्रिया के दौरान डिजिटल रिकॉर्ड रखना — नाम हटाने/जोड़ने का लॉग, समय-तिथि, हस्ताक्षर।

  • सार्वजनिक रूप से मतदाता सूची का ड्राफ्ट प्रकाशित करना ताकि लोग अनियमितता की शिकायत कर सकें।

  • मीडिया एवं नागरिकों को शामिल करना ताकि “खेल” जैसे आरोपों का जवाब मिल सके।

  • आगामी चुनाव में राज्यों (जैसे यूपी) में पहले से तैयारी करना कि प्रक्रिया खुले और निगरानी-योग्य हो।


निष्कर्ष

अखिलेश यादव का यह बयान सिर्फ राजनीति तक सिमित नहीं है — यह आज की लोकतांत्रिक प्रक्रिया, प्रशासन-विश्वास और चुनाव-निगरानी के बड़े सवाल उठाता है। उन्होंने यह कहा है कि बिहार में SIR प्रक्रिया के माध्यम से “खेल” हुआ है और आगामी उत्तर प्रदेश में इसे होने नहीं देंगे। इस बयान के माध्यम से उन्होंने सपा को एक सक्रिय निगरानी-दल के रूप में प्रस्तुत किया है और भविष्य के चुनावों में मतदाता-सुरक्षा व प्रक्रिया-पारदर्शिता पर जोर दिया है।

यदि प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं होगी, तो जन-विश्वास कम होगा, मतदान का प्रतिशत घट सकता है और लोकतंत्र की जड़ें कमजोर पड़ सकती हैं। इसलिए राज्य-प्रशासन, निर्वाचन आयोग तथा राजनीतिक दलों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि चयनित नाम-फिरौती (SIR) जैसी प्रक्रिया केवल नामों के अद्यतन तक सीमित रहे, राजनीतिक समीकरण-निर्धारण का उपकरण न बने।

अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि “प्रक्रिया सुधार” लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अपरिहार्य है — और इस बयान के आलोक में यह बात और भी तीव्र हो गई है।

अगर आप चाहें, तो मैं इस मुद्दे पर विश्लेषणात्मक आर्टिकल भी तैयार कर सकता हूँ जिसमें सही-गलत पहलुओं, आगे की रणनीतियों और राज्यों के मध्य तुलना शामिल होगी।

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